गुली को चबाती
मुंह में घुमाती
कॉपी में घिसटती
सीखती रुपये-पैसे का ज्ञान।
सांय से खाली पेट को आंतड़ियों का सहारा
उस से पहले मध्यान्ह भोजन की बोरियों का सहारा
बैठी हुई को टाटपट्टी का सहारा
विवाह के बाद बेसहारा।
ज्वाहर से दूर
जवाहर के चित्र के नीचे बैठ
दूसरे के दिखाये भुलावे को
शिक्षा समझ भर भर पीते हम।
मेरी वारली कला
मेरी खेती, मेरी ताड़ी का पागलपन
मेरे समाज की समझ
क्या ये चार दिवारी में गूंजती आवाजें
मुझे दे पायेंगी ?